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नज़्म
ज़बाँ से नफ़रत क्यूँ
ज़बान बनती है बैठक में दास्ताँ की तरह
ज़बान ढलती है बाज़ार में दुकानों में
नाज़िश प्रतापगढ़ी
नज़्म
ज़रा सोचो तो क्या होगा
कभी सूरज नहीं निकला तो सुस्ती की सज़ा देंगे
उठक-बैठक कराएँगे उसे मुर्ग़ा बना देंगे
सफ़दर अली सफ़दर
ग़ज़ल
यही इक कोठरी अपने लिए आँगन है बैठक है
अगर इस शहर में जीना है घर की बात मत सोचो
हामिद इक़बाल सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
भूल बैठा हूँ किताबों और क्लासों के सबक़
तुम ने लेकिन जो पढ़ाया था वो अब तक याद है