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नज़्म
'फ़िराक़' गोरखपुर को तहनियत
नापना सहल नहीं है तिरी अज़्मत का फ़िराक़
क़द्र करना किसी माहिर की नहीं कोई मज़ाक़
रंगेशवर दयाल सक्सेना सूफ़ी
ग़ज़ल
दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग
जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
उस शोख़ को अपना करने का बे-समझे न अरमाँ कर लेना
भूले से कभी ऐसा सौदा मत ऐ दिल-ए-नादाँ कर लेना