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ग़ज़ल
जल रही है धीरे धीरे दिल के रिश्तों की मिठास
कौन है जो आग भड़काता है तेरे शहर में
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
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नज़्म
ला-यख़ुल
मेरी रूह में आतिश का भड़काता हुआ साया
ये साया रौशनी ही रौशनी है सर से पाँव तक
तहसीन फ़िराक़ी
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
मैं ख़ुद में झेंकता हूँ और सीने में भड़कता हूँ
मिरे अंदर जो है इक शख़्स मैं उस में फड़कता हूँ
जौन एलिया
ग़ज़ल
ऐ रहबर-ए-कामिल चलने को तय्यार तो हूँ पर याद रहे
उस वक़्त मुझे भटका देना जब सामने मंज़िल आ जाए