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नज़्म
रात और रेल
रेंगती मुड़ती मचलती तिलमिलाती हाँफती
अपने दिल की आतिश पिन्हाँ को भड़काती हुई
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ऐ मिरे बे-दर्द शहर
दूर हर शब जाग उठते हैं कई माह-ओ-नुजूम
आग भड़काती हैं संग-ओ-ख़िश्त की रा'नाइयाँ
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
आह-ए-सर्द और भी भड़काती है शोला दिल में
ये दिया वो है जो फूँकों से बुझाए न बने
दत्तात्रिया कैफ़ी
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ग़ज़ल
जो आग लगाई थी तुम ने उस को तो बुझाया अश्कों ने
जो अश्कों ने भड़काई है उस आग को ठंडा कौन करे
मुईन अहसन जज़्बी
ग़ज़ल
मोहब्बत हो तो जाती है मोहब्बत की नहीं जाती
ये शो'ला ख़ुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता
मख़मूर देहलवी
ग़ज़ल
गर मोहब्बत है तो वो मुझ से फिरेगा न कभी
ग़म नहीं है मुझे ग़म्माज़ को भड़काने दो