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नज़्म
मुफ़्लिसी
प्यासा तमाम रोज़ बिड़ाती है मुफ़्लिसी
भूका तमाम रात सुलाती है मुफ़्लिसी
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
एक मकड़ा और मक्खी
भूका था कई रोज़ से अब हाथ जो आई
आराम से घर बैठ के मक्खी को उड़ाया