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ग़ज़ल
ख़ुदा के फ़ज़्ल से इस बोसतान-ए-ना'त-ए-मिदहत में
'जमीला' नग़्मा-ज़न है बुलबुल-ए-ख़ुश-दास्ताँ हो कर
जमीला ख़ुदा बख़्श
ग़ज़ल
मिलेगा मुल्क-ए-ख़ूबी या मताअ-ए-सरगिरानी
मैं अपने नाम का सिक्का रवाँ करता रहूँगा
मिद्हत-उल-अख़्तर
ग़ज़ल
मैं जो दुश्मन के बुलावे पर निकल आया हूँ 'मिदहत'
बर-सर-ए-मैदान में कुछ ठानना ही चाहता हूँ
मिद्हत-उल-अख़्तर
ग़ज़ल
था जो शेर-ए-रास्त सर्व-ए-बोसतान-ए-रेख़्ता
अब वही है लाला-ए-ज़र्द-ए-ख़िज़ान-ए-रेख़्ता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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