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शेर
तुम ही न सुन सके अगर क़िस्सा-ए-ग़म सुनेगा कौन
किस की ज़बाँ खुलेगी फिर हम न अगर सुना सके
हफ़ीज़ जालंधरी
ग़ज़ल
अभी इस क़िस्सा-ए-ग़म को न तुम छेड़ो न हम छेड़ें
मरीज़-ए-'इश्क़-ए-बे-दम को न तुम छेड़ो न हम छेड़ें
माहम ख़ान
ग़ज़ल
अख़्तर शीरानी
ग़ज़ल
महबूब ख़ाँ रौनक़
ग़ज़ल
फ़क़त दो हिचकियों में ख़त्म क़िस्सा शाम-ए-ग़म का है
चराग़-ए-ज़िंदगी अब साथ तेरा कोई दम का है
मुस्लिम मलेगाँवी
ग़ज़ल
क़िस्सा-ए-दर्द-ए-जिगर किस से कहूँ कैसे कहूँ
ये मोहब्बत का असर किस से कहूँ कैसे कहूँ