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ग़ज़ल
काग़ज़ पर पेचीदा मिसरों की भर-मार लगा देते हैं
फिर दीवान-ए-मीर को तकते तकते थक कर सो जाते हैं
शब्बीर एहराम
कुल्लियात
मुझ को शा'इर न कहो 'मीर' कि साहिब मैं ने
दर्द-ओ-ग़म कितने किए जम' तो दीवान किया
मीर तक़ी मीर
शेर
उसी को हश्र कहते हैं जहाँ दुनिया हो फ़रियादी
यही ऐ मीर-ए-दीवान-ए-जज़ा क्या तेरी महफ़िल है