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ग़ज़ल
दिखावे के लिए एलान-ए-फ़ैज़-ए-आम होता है
मगर इक ख़ास ही हल्क़ा में दौर-ए-जाम होता है
जुर्म मुहम्मदाबादी
ग़ज़ल
हुस्न को आख़िर ख़याल-ए-फ़ैज़-ए-आम आ ही गया
आज कोई ख़ुद-बख़ुद बाला-ए-बाम आ ही गया
साहिर सियालकोटी
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ग़ज़ल
करते हैं जिस पे ता'न कोई जुर्म तो नहीं
शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ उल्फ़त-ए-नाकाम ही तो है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो
हाकिम-ए-शहर भी मजमा-ए-आम भी
तीर-ए-इल्ज़ाम भी संग-ए-दुश्नाम भी
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
सब जानते हैं इल्म से है ज़िंदगी की रूह
रहम आ गया हुज़ूर को हालत पे क़ौम की
फिर क्या था मौजज़न हुआ दरिया-ए-फ़ैज़-ए-आम
अकबर इलाहाबादी
शेर
पैग़ाम-ए-लुत्फ़-ए-ख़ास सुनाना बसंत का
दरिया-ए-फ़ैज़-ए-आम बहाना बसंत का
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर
ग़ज़ल
न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में
नमाज़-ए-शौक़ तो वाजिब है बे-वुज़ू ही सही
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
पैग़ाम-ए-लुत्फ़-ए-ख़ास सुनाना बसंत का
दरिया-ए-फ़ैज़-ए-आम बहाना बसंत का