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नज़्म
चंद रोज़ और मिरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ीस्त आशोब-ए-ग़म-ए-मर्ग का तूफ़ाँ ही सही
मिल ही जाता है सफ़ीनों को किनारा आख़िर
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
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नज़्म
रक़्स की रात
काश उभर आए कहीं से वो सफ़ीना जो मुझे
इस ग़म-ए-मर्ग-ए-तह-ए-आब से आज़ाद करे
नून मीम राशिद
नज़्म
रक़्स की रात
काश उभर आए कहीं से वो सफ़ीना जो मुझे
इस ग़म-ए-मर्ग-ए-तह-ए-आब से आज़ाद करे
नून मीम राशिद
नज़्म
उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
उर्दू का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले
उर्दू का ग़म-ए-मर्ग सुबुक भी है गराँ भी
रईस अमरोहवी
ग़ज़ल
फिर अपना अपना कफ़न ले के चल दिए सब लोग
किसी से बार-ए-ग़म-ए-मर्ग-ए-मुश्तरक न उठा
नश्तर ख़ानक़ाही
ग़ज़ल
फ़ज़ा है सुस्त ग़म-ए-मर्ग हम-ख़यालाँ सख़्त
हुजूम-ए-शहर में होने को हम-नवा थे बहुत