ये तमन्ना थी कि हम इतने सुख़नवर होते
इक ग़ज़ल कहते तो आबाद कई घर होते
दूरियाँ इतनी दिलों में तो न होतीं यारब
फैल जाते ये जज़ीरे तो समुंदर होते
अपने हाथों पे मुक़द्दर के नविश्ते भी पढ़
न सही मा'नी ज़रा लफ़्ज़ तो बेहतर होते
दिल पे इक वही और इल्हाम का रहता है समाँ
हम अगर रिंद न होते तो पयम्बर होते
हम अगर दिल न जलाते तो न जलते ये चराग़
हम न रोते जो लहू आइने में पत्थर होते
हम अगर जाम-ब-कफ़ रक़्स न करते रहते
तेरी राहों में सितारे न गुल-ए-तर होते
घर बना बैठे बयाबाँ में दिवाने वर्ना
पाँव उठ जाते तो जिबरील का शहपर होते
सूरतें यूँ तो न यारों की रुलाती रहतीं
ऐ ग़म-ए-मर्ग ये सदमे तो न दिल पर होते
हम रहे गरचे तही-दस्त ही जाफ़र-'ताहिर'
बस में ये बात भी कब थी कि अबूज़र होते
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