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ग़ज़ल
कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को हे ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना 'मज़हर' अपना 'जान-ए-जाँ' अपना
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
समस्त
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शेर
हर शख़्स को फ़रेब-ए-नज़र ने किया शिकार
हर शख़्स गुम है गुम्बद-ए-जाँ के हिसार में
फ़र्रुख़ ज़ोहरा गिलानी
ग़ज़ल
एक दिन 'अफ़रोज़' जितने भी हैं आहंग-ए-हयात
गुम्बद-ए-जाँ में वो सब ही बे-सदा हो जाएँगे
अफ़रोज़ रिज़वी
ग़ज़ल
हर शख़्स को फ़रेब-ए-नज़र ने किया शिकार
हर शख़्स गुम है गुम्बद-ए-जाँ के हिसार में