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ग़ज़ल
मोहम्मद आबिद अली आबिद
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शेर
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
आँखें बाज़ार में यूँ उस को न मटकाना था
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
वो सितम-पेशा कहाँ शर्म-ओ-हया रखते हैं
हम ग़रीबों पे हर इक ज़ुल्म रवा रखते हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
नज़्म
तामीरी तख़रीब
पैकर-ए-शर्म-ओ-हया शर्म-ओ-हया से दूर है
सीना-ए-अख़्लाक़ में रिसता हुआ नासूर है
नख़्शब जार्चवि
ग़ज़ल
शब को जब अबरू-ओ-मिज़्गाँ की सफ़-आराई हुई
शोख़ियों में दब गई शर्म-ओ-हया आई हुई
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
तम्कीं से न देखे जो कभी आइना झुक कर
वो मुर्तक़िब-ए-शर्म-ओ-हया हो नहीं सकता