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ग़ज़ल
नो आसमाँ ख़ुर-ओ-मह सातों तबक़ ज़मीं के
रूह-ओ-हवास-ए-ख़मसा और शश-जहात तीसों
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
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कुल्लियात
सारे 'आलम के हवास-ए-ख़मसा में है इंतिशार
एक हम तुम ही नहीं मा'लूम होते दह-दिले
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
पाँच ये मेरे हवास-ए-ख़मसा हैं दो जिस्म-ओ-जाँ
इश्क़ ने तक़्सीम पाई है बराबर सात में
सय्यद अाग़ा अली महर
नज़्म
आए बसंत
शहर की जाँ से ग़ुबार-ए-शहर का बादल छटे
तो हवास-ए-ख़मसा की नगरी में भी आए बसंत
अमीक़ हनफ़ी
ग़ज़ल
मोहम्मद मुबशशिर मेयो
ग़ज़ल
हुए सब जम्अ' मज़मूँ 'ज़ौक़' दीवान-ए-दो-आलम के
हवास-ए-ख़मसा हैं इंसाँ के वो बंद-ए-मुख़म्मस में
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
दुख पहुँचे जो कुछ तुम को तुम्हारी ये सज़ा है
क्यूँ उस के 'हवस' आशिक़-ए-जाँ-बाज़ हुए तुम
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस
ग़ज़ल
आश्ना कोई नज़र आता नहीं याँ ऐ 'हवस'
किस को मैं अपना अनीस-ए-कुंज-ए-तन्हाई करूँ