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ग़ज़ल
ऐ कि शिकवा था तुझे संगीं-मिज़ाजी का मिरी
देख इस पत्थर में भी मौज-ए-शरार-ए-नग़्मा है
गोपाल मित्तल
शेर
सुनती है रोज़ नग़्मा-ए-ज़ंजीर-ए-आशिक़ाँ
वो ज़ुल्फ़ भी है सिलसिला-ए-अहल-ए-चिश्त में
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
जिस तरफ़ देखो हुजूम-ए-चेहरा-ए-बे-चेरगाँ
किस घने जंगल में यारो गुम हुआ सब का हुनर