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ग़ज़ल
बाग़ तक क्या कारवान-ए-हुस्न-ए-बे-परवा गया
बू परेशाँ है रुख़-ए-गुल को पसीना आ गया
अब्दुल अज़ीज़ फ़ितरत
शेर
हुस्न-ए-बे-परवा को ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा कर दिया
क्या किया मैं ने कि इज़हार-ए-तमन्ना कर दिया
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
हुस्न-ए-बे-परवा को ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा कर दिया
क्या किया मैं ने कि इज़हार-ए-तमन्ना कर दिया
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
हुस्न-ए-बे-परवा ने जब चाहा हुवैदा हो गया
और जब चाहा ज़माने-भर से पर्दा हो गया
सय्यद नवाब हैदर नक़वी राही
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ग़ज़ल
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
आइना ज़ानू-ए-फ़िक्र-ए-इख़्तिरा-ए-जल्वा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तिरा ऐ हुस्न-ए-बे-परवा तिरा
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इश्क़ करते हैं तो अहल-ए-इश्क़ यूँ सौदा करें
होश का सरमाया नज़्र-ए-हुस्न-ए-बे-परवा करें
अहसन मारहरवी
ग़ज़ल
हुस्न-ए-बे-परवा को अपनी बे-नक़ाबी के लिए
हों अगर शहरों से बन प्यारे तो शहर अच्छे कि बन