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ग़ज़ल
हर नज़ारे में नुमायाँ हुआ जल्वा उन का
हुस्न जब हुस्न-परस्तों से छुपाने निकले
दानियाल हैदर जाफ़री
नज़्म
ज़लज़ला
मैं उन्हीं हुस्न-परस्तों की हूँ तड़पाई हुई
तुझ से कहने को ये राज़ आई हूँ घबराई हुई
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
जाँ-कनी हुस्न-परस्तों को गिराँ क्या गुज़रे
भेस में हूर-ए-बहिश्ती के क़ज़ा आती है
शैख़ अली बख़्श बीमार
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शेर
था जिन्हें हुस्न-परस्ती से हमेशा इंकार
वो भी अब तालिब-ए-दीदार हैं किन के उन के
मोहम्मद अमान निसार
ग़ज़ल
हुस्न-परस्ती हज़रत-ए-नासेह आप के बस की बात नहीं
अपना अपना ज़र्फ़-ए-नज़र है 'इश्क़-ओ-हवस की बात नहीं