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शेर
शर्म कब तक ऐ परी ला हाथ कर इक़रार-ए-वस्ल
अपने दिल को सख़्त कर के रिश्ता-ए-इंकार तोड़
मुनीर शिकोहाबादी
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ग़ज़ल
शर्म कब तक ऐ परी ला हाथ कर इक़रार-ए-वस्ल
अपने दिल को सख़्त कर के रिश्ता-ए-इंकार तोड़
मुनीर शिकोहाबादी
ग़ज़ल
इक़रार-ए-वस्ल और वो मस्त-ए-ग़ुरूर-ए-नाज़
आया है पी के तू कहीं ऐ नामा-बर शराब
क़ुर्बान अली सालिक बेग
ग़ज़ल
इक़रार-ए-वस्ल और वो मस्त-ए-ग़ुरूर-ए-नाज़
आया है पी के तू कहीं ऐ नामा-बर शराब
क़ुर्बान अली सालिक बेग
नज़्म
लब पर नाम किसी का भी हो
फ़र्दा महज़ फ़ुसूँ का पर्दा, हम तो आज के बंदे हैं
हिज्र ओ वस्ल, वफ़ा और धोका सब कुछ आज पे रक्खा है
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इक़रार-ए-शब-ए-वस्ल पे ये तूल अरे ज़ालिम
दम भर के भी जीने का भरोसा नहीं होता