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ग़ज़ल
मिरे लहू से है रंगीं जबीन-ए-सुब्ह तो क्या
चलो कि ज़ुल्मत-ए-शब का तो हौसला निकला
अब्दुल हफ़ीज़ नईमी
ग़ज़ल
'फ़ज़ा' है ख़ालिक़-ए-सुब्ह-ए-हयात फिर भी ग़रीब
कहाँ कहाँ न उफ़ुक़ की तलाश में डूबा
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
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ग़ज़ल
कटने लगीं रातें आँखों में देखा नहीं पलकों पर अक्सर
या शाम-ए-ग़रीबाँ का जुगनू या सुब्ह का तारा होता है
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए
हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ऐ सख़ियो ऐ ख़ुश-नज़रो यक गूना करम ख़ैरात करो
नारा-ज़नाँ कुछ लोग फिरें हैं सुब्ह से शहर-ए-निगार के बीच
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
नज़्म
उजाले की लकीर
इक नई सुब्ह-ए-दरख़्शाँ का रूपहला आँचल
अपने हमराह लिए अज़्म-ए-जवाँ की तनवीर
नूर-ए-शमा नूर
ग़ज़ल
कहीं सुब्ह-ओ-शाम के दरमियाँ कहीं माह-ओ-साल के दरमियाँ
ये मिरे वजूद की सल्तनत है अजब ज़वाल के दरमियाँ
बद्र-ए-आलम ख़लिश
नज़्म
गुलहा-ए-अक़ीदत
सुब्ह-दम बाद-ए-सबा की शोख़ियाँ काम आ गईं
लाला-ओ-गुल को बग़ल-गीरी का मौक़ा मिल गया