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ग़ज़ल
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
सिक्का अपना नहीं जमता है तुम्हारे दिल पर
नक़्श अग़्यार के किस तौर से जम जाते हैं
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
सिक्का अपना नहीं जमता है तुम्हारे दिल पर
नक़्श अग़्यार के किस तौर से जम जाते हैं
पंडित जवाहर नाथ साक़ी
ग़ज़ल
जमता है अपने ज़िक्र से अब महफ़िलों का रंग
रहते हैं अपने घर में मगर जा-ब-जा हैं हम
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
शो'ला-रूयों के मुक़ाबिल रंग जमता ही नहीं
उड़ न जाए बज़्म से बन कर धुआँ बत्ती चराग़