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ग़ज़ल
मुझ को ज़िंदा रहने का इक जज़्बा आ के मार गया
मैं अपनी साँसों से आख़िर लड़ते लड़ते हार गया
शहज़ाद रज़ा लम्स
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ग़ज़ल
इज़हार-ए-जज़्बा-ए-दिल-ए-पोशीदा देखना
अब फूल ख़ुद हैं ख़ार के गिरवीदा देखना
साहबज़ादा मीर बुरहान अली खां कलीम
नज़्म
ए'तिराफ़
अब मैं वो जज़्बा-ए-मासूम कहाँ से लाऊँ
मेरे साए से डरो तुम मिरी क़ुर्बत से डरो
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
'मीर' का सोज़-ए-बयाँ हो तो ग़ज़ल होती है
'दाग़' का लुत्फ़-ए-ज़बाँ हो तो ग़ज़ल होती है
शिव दयाल सहाब
नज़्म
मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
मादर-ए-हिन्द के फ़नकार थे मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
अपने फ़न में बड़े हुश्यार थे मिर्ज़ा 'ग़ालिब'
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
नज़र से दूर है 'जज़्बी' सवाद-ए-मंज़िल तक
न जाने ज़ौक़-ए-तलब में मिरे कमी क्या है