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हिंदी ग़ज़ल
जिएँ तो अपने बग़ैचा में गुल-मुहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुल-मुहर के लिए
दुष्यंत कुमार
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नज़्म
दोस्ती का हाथ
जिएँ तमाम हसीनान-ए-ख़ैबर-ओ-लाहौर
जिएँ तमाम जवानान-ए-जन्नत-ए-कश्मीर
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
हुई जिन से तवक़्क़ो' ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वो जिएँ क्या जिन्हें जीने का हुनर भी न मिला
दश्त में ख़ाक उड़ाते रहे घर भी न मिला
आल-ए-अहमद सुरूर
हास्य
जीना यहाँ सज़ा है अब और हम कहें क्या
गंदी फ़ज़ा में कब तक मर मर के हम जिएँ क्या