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शेर
ज़िंदगी नाम है इक जोहद-ए-मुसलसल का 'फ़ना'
राह-रौ और भी थक जाता है आराम के बा'द
फ़ना निज़ामी कानपुरी
नज़्म
रात सुनसान है
जोहद-ए-हस्ती की कड़ी धूप में थक जाने पर
जिस की आग़ोश ने बख़्शा है मुझे माँ का ख़ुलूस
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
आख़िरी लम्हा
हर जोहद हर अमल का तक़ाज़ा हसीन है
चमन से चंद ही काँटे मैं चुन सका लेकिन
जाँ निसार अख़्तर
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नज़्म
ख़ाक-ए-दिल
अश्क पत्थर की तरह जम से गए हैं मेरे
ज़िंदगी अर्सा-गह-ए-जोहद-ए-मुसलसल ही सही
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
फिर वही जोहद-ए-मुसलसल फिर वही फ़िक्र-ए-मआश
मंज़िल-ए-जानाँ से कोई कामयाब आया तो क्या
शकील बदायूनी
नज़्म
मुद्दत के बाद
मैं ने भी एक जोहद-ए-मुसलसल में काट दी
वो उम्र थी जो फूल से अरमाँ लिए हुए
हिमायत अली शाएर
ग़ज़ल
ज़िंदगी नाम है इक जोहद-ए-मुसलसल का 'फ़ना'
राह-रौ और भी थक जाता है आराम के बाद
फ़ना निज़ामी कानपुरी
ग़ज़ल
हासिल-ए-जोहद-ए-मुसलसल मुस्तक़िल आज़ुर्दगी
काम करता हूँ हवा में जुस्तुजू नायाब में