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ग़ज़ल
बू-ए-गुल रक़्स में है बाद-ए-ख़िज़ाँ रक़्स में है
ये ज़मीं रक़्स में है सारा जहाँ रक़्स में है
ज़ाहिदा ज़ैदी
ग़ज़ल
जो तिरी नज़र में पिन्हाँ न ये ए'तिबार होता
मिरी जाँ ग़ुबार होती मिरा दिल मज़ार होता
साजिदा ज़ैदी
नज़्म
वो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा
वो हर्फ़ जो फ़ज़ा-ए-नीलगूँ की वुसअ'तों में क़ैद था
वो सौत जो हिसार-ए-ख़ामुशी में जल्वा-रेज़ थी
ज़ाहिदा ज़ैदी
ग़ज़ल
हम ने इक उम्र में क्या क्या न जहाँ देखे हैं
आसमाँ देखे हैं और क़ा'र-ए-निहाँ देखे हैं
साजिदा ज़ैदी
ग़ज़ल
ऐसी तन्हाई है अपने से भी घबराता हूँ मैं
जल रही हैं याद की शमएँ बुझा जाता हूँ मैं