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ग़ज़ल
यूँ काकुल-ओ-रुख़ अपने तसव्वुर में हैं 'जुम्बिश'
इक मरहला-ए-शाम-ओ-सहर देख रहा हूँ
जुंबिश ख़ैराबादी
ग़ज़ल
जब तक ऐ 'जुम्बिश' रहे वो माइल-ए-लुत्फ़-ओ-करम
हर नफ़स इक ज़िंदगी-ए-जाविदाँ बनता गया
जुंबिश ख़ैराबादी
ग़ज़ल
गरेबाँ फाड़ कर 'जुम्बिश' चलो फूलों की महफ़िल में
ये सहरा है यहाँ हाल-ए-परेशाँ कौन देखेगा
जुंबिश ख़ैराबादी
ग़ज़ल
धुआँ जो बे-कसों की आह का उट्ठा तो ऐ 'जुम्बिश'
चमन वाले पुकार उट्ठे कि वो अब्र-ए-बहार आया
जुंबिश ख़ैराबादी
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ग़ज़ल
बेदर्दों के दौर में है 'जुम्बिश' ख़ून-ए-तमन्ना होने दो
कोई न कोई आँसू सुर्ख़ी दे देगा अफ़्साने की
जुंबिश ख़ैराबादी
ग़ज़ल
अरक़-आगीं जबीं इंसानियत की हो गई 'जुम्बिश'
कि दौर आया है वो शर्म-ओ-हया की आँख भर आई
जुंबिश ख़ैराबादी
ग़ज़ल
याँ जुम्बिश-ए-मिज़ा भी गुनाह-ए-अज़ीम है
चुप-चाप देखते रहो जो कुछ दिखाए दोस्त
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
जुम्बिश-ए-तेग़-ए-निगह की नहीं हाजत असलन
काम मेरा वो इशारों ही में कर जाते हैं
कल्ब-ए-हुसैन नादिर
ग़ज़ल
हो गया ज़ौक़ फ़ज़ा-ए-ख़लिश-ए-याद-ए-मिज़ा
कौन कहता है कि लज़्ज़त तिरे पैकाँ में नहीं