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ग़ज़ल
कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात
ये हुस्न ओ इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी
फ़िराक़ गोरखपुरी
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ग़ज़ल
'अहक़र' फ़रेब-ए-ज़ीस्त से उक्ता गया हूँ मैं
कैसा ‘अजीब दाम-ए-हयात-ओ-ममात है
अब्दुल क़ादिर अहक़र अज़ीजज़ि
ग़ज़ल
हर एक ख़ौफ़-ए-हयात-ओ-ममात में गुम है
ऐ शब-निगाह तुलू'-ए-सहर को इफ़्शा कर
मख़्दूम ज़ादा मुख़्तार उस्मानी
ग़ज़ल
'फ़ज़ा' है ख़ालिक़-ए-सुब्ह-ए-हयात फिर भी ग़रीब
कहाँ कहाँ न उफ़ुक़ की तलाश में डूबा