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नज़्म
ख़ला में बंदर
क्या ख़ला में उस पे गुज़री होगी ऐ साक़ी न पूछ
''काव-काव-ए-सख़्त-जानी हाए तन्हाई न पूछ''
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
शेर
छलक जाती है अश्क-ए-गर्म बन कर मेरी आँखों से
ठहरती ही नहीं सहबा-ए-दर्द इन आबगीनों में
अब्दुल रहमान बज़्मी
समस्त
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शेर
जान जानी है मिरी ऐ बुत-ए-कम-सिन तुझ पर
मर ही जाऊँगा गला काट के इक दिन तुझ पर