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काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ

मिर्ज़ा ग़ालिब

काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ

मिर्ज़ा ग़ालिब

MORE BYमिर्ज़ा ग़ालिब

    काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई पूछ

    सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

    व्याख्या

    उर्दू शायरी में यूँ तो तन्हाई कोई नया मौज़ू नहीं है लेकिन हर शायर की तन्हाई अलग रंग की होती है, बुनियादी जज़्बात दर अस्ल एक से होते हैं मगर एक ही ख़मीर अलग अलग साँचे में ढल कर जुदा जुदा रूप में ज़ाहिर होता है।

    ग़ालिब का ये शेर देखिए, ये शेर तन्हाई के कर्ब को एक अलग ही शिद्दत देता है।

    तन्हा होने पर इंसान का वक़्त काटना मुश्किल हो जाता है, ये ज़ाहिर सी बात है।

    लेकिन तन्हाई में जब किसी की जुदाई शामिल हो, तब वो तन्हाई इंसान को कितनी गिराँ गुज़रती है ये देखिए,

    काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई पूछ

    तन्हाई में वक़्त गुज़ारने की मुश्किलें पूछ, मुश्किलों को झेलना काव-काव से ज़ाहिर किया है।

    काव-काव यानी खोदना, काविश लफ़्ज़ इसी से जुड़ा है।

    इस शेर में काव-काव की आवाज़ भी ख़ूब काम कर रही है, बेख़ुद मोहानी के नज़दीक ग़ालिब ने इसे ऐसे इस्तिमाल किया है कि यह इस्म-ए-सौत बन गया है और इसे ग़ालिब की ही ईजाद कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी में इसी को आनामाटापिया कहते हैं हालाँकि ये पूरी तरह इस्म-ए-सौत है ही आनामाटापिया।

    इस से हमें एक इशारा भी मिलता है, तन्हाई की ज़िंदगी काटना इतना मुश्किल है जैसे लगातार पत्थर खोदना।

    खोदने या पत्थर तोड़ने से बहुत मुमकिन है कि हमारा ज़हन उस किरदार की तरफ़ जाए जिस का नाम भी इसी वजह से कोहकन है।

    पहले मिसरे से हमें कोहकन की तरफ़ हल्का सा इशारा मिलता है, अगला मिसरा देखिए,

    सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

    अब अगर आप कोहकन (फ़रहाद) के क़िस्से से वाक़िफ़ हैं तो शेर में जो तल्मीह है वो समझ चुके होंगे।

    वाक़िफ़ नहीं हैं तो मुख़्तसर क़िस्सा ये है कि फ़रहाद के शीरीं से मिलने की शर्त रखी गयी थी।

    शर्त थी कि फ़रहाद अगर पहाड़ खोद‌-तोड़ कर जू-ए-शीर यानी दूध की नदी इस पार ले आएगा तो शीरीं उस की होगी।

    फ़रहाद पहाड़ खोद कर जू-ए-शीर तो ले आया लेकिन उससे कहा गया कि शीरीं मर चुकी है, ये ख़बर सुनते ही फ़रहाद भी अपने सर पर तेशा मार कर मर गया।

    फ़रहाद को इसी वाक़ेऐ के बाद कोहकन कहा जाने लगा।

    ग़ालिब ने ख़ुद को फ़रहाद की जगह रखा है। शाम से सुब्ह तक के वक़्त को पहाड़ माना है, अब इस शाम से अगली सुब्ह तक पहुँचना मानो फ़रहाद का पहाड़ तोड़ना ही है।

    जोश मलीहाबादी कहते हैं कि इस में एक नुक्ता यह भी है कि फ़रहाद पहाड़ तोड़ने के बाद मर गया था, तो एक इशारा ये भी है कि शाम से सुब्ह करने में अब जान ही जाएगी।

    सब समझ कर शे'र को फिर से पढ़िए और देखिए कि लुत्फ़ दो-बाला हुआ कि नहीं?

    काव काव-ए-सख़्त जानी हाए तन्हाई पूछ

    सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का

    प्रियंवदा इल्हान

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