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शेर
कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए
न लहू मिरे ही जिगर में था न तुम्हारी ज़ुल्फ़ सियाह थी
अहमद मुश्ताक़
लेख
ناول کا خلاصہ ’’کئی چاند تھے سرِ آسماں‘‘ شمس الرحمٰن فاروقی کا تخلیق کردہ ایک ایسا کوزہ ہے...
रशीद अशरफ़ ख़ान
ग़ज़ल
कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए
न लहू मिरे ही जिगर में था न तुम्हारी ज़ुल्फ़ सियाह थी
अहमद मुश्ताक़
नज़्म
शीशा-ए-साअत का ग़ुबार
मैं ज़िंदा था
मगर मैं तेरे सुर्ख़ नील-गूँ सफ़ेद बुलबुले में क़ैद था
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
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नज़्म
आख़िरी तमाशाई
उठो कि वक़्त ख़त्म हो गया
तमाश-बीनों में तुम आख़िरी ही रह गए हो
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
लग़्ज़िश पा-ए-होश का हर्फ़-ए-जवाज़ ले के हम
ख़ुद को समझने आए हैं रूह-ए-मजाज़ ले के हम
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
मौसम-ए-संग-ओ-रंग से रब्त-ए-शरार किस को था
लहज़ा-ब-लहज़ा जल गई दर्द-ए-बहार किस को था
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
नज़्म
जवाब-ए-शिकवा
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है
पर नहीं ताक़त-ए-परवाज़ मगर रखती है