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नअत
हर-चंद के मौला ने भरा है तिरा कश्कोल
कम-ज़र्फ़ न बन हाथ बढ़ा और भी कुछ माँग
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
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ग़ज़ल
कश्कोल-ए-चश्म ले के फिरो तुम न दर-ब-दर
'मंज़ूर' क़हत-ए-जिंस-ए-वफ़ा का ये साल है
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
नज़्म
आख़िरी लम्हा
ढूँडे नहीं मिलतीं वो आँखें जो आँखें हो कश्कोल नहीं
सोचा था कि कल इस धरती पर इक रंग नया छा जाएगा
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
हम ने सब को मुफ़्लिस पा के तोड़ दिया दिल का कश्कोल
हम को कोई क्या दे देगा क्यूँ मुँह-देखी बात करें
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
नज़्म
फ़र्श-ए-नौमीदी-ए-दीदार
कोई दरवाज़ा अबस वा हो, न बे-कार कोई
याद फ़रियाद का कश्कोल लिए बैठी हो