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ग़ज़ल
अहल-ए-तूफ़ाँ बे-हिसी का गर यही आलम रहा
मौज-ए-ख़ूँ बन कर हर इक सर से गुज़र जाएगी रात
सुरूर बाराबंकवी
ग़ज़ल
'रहीम' आलाम का हद-ए-नज़र तक इक समुंदर है
हो मुमकिन तो ख़ुशी का इस में इक तूफ़ान पैदा कर
रऊफ़ रहीम
ग़ज़ल
मिरे रोज़-ओ-शब का आलम न समझ सकेंगे 'राही'
जो ज़वाल से न गुज़रे जो कमाल तक न पहुँचे
मुसतफ़ा राही
नज़्म
जमुना
धीमी धीमी बहने वाली एक नहर-ए-दिल-नशीं
आब-ए-जू छोटी सी इक नाज़ुक ख़िराम-ओ-नाज़नीं
सुरूर जहानाबादी
ग़ज़ल
ज़मीं पे खुलती रही हैं कलियाँ फ़लक पे तारे उगा किए हैं
यही करिश्मे हुआ करेंगे यही करिश्मे हुआ किए हैं
ख़ुर्शीदुल इस्लाम
ग़ज़ल
यही आलम रहा गर शौक़ की आईना-बंदी का!
तो गुम हो जाएगा जल्वों में शौक़-ए-ख़ुद-निगर मेरा
परवेज़ शाहिदी
नज़्म
टीपू
फ़लाह-ए-क़ौम का जिस ने किया बुलंद अलम
रही थी जिस को मुक़द्दम हमेशा ख़ैर-ए-अनाम