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ग़ज़ल
अबद तक कौकब-ए-बख़्त-ए-सआदत बन के चमकेंगे
हुए हैं जज़्ब जो क़तरे लहू के तेग़-ए-क़ातिल में
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
बन गया ख़ाल-ए-जबीं कौकब-ए-बख़्त-ए-यूसुफ़
किस तरक़्क़ी पे तिरा हुस्न-ए-ख़ुदा-दाद आया
वज़ीर अली सबा लखनवी
ग़ज़ल
हसन बख़्त
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ग़ज़ल
मेरे नसीब में नहीं जल्वा-ए-सुब्ह-ए-आरज़ू
'कौकब'-ए-शाम-ए-ग़म हूँ मैं नज्म-ए-सहर को क्या करूँ
कौकब मुरादाबादी
ग़ज़ल
ज़ब्त-ए-ग़म से लाख अपनी जान पर बन आए है
हाँ मगर ये इज़्ज़त-ए-सादात तो रह जाए है
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
रुख़-ए-जानाँ का जो रहता है तसव्वुर 'आरिफ़'
कौकब-ए-बख़्त है ये दीदा-ए-हैराँ मेरा
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
आज क्यों नग़्मा-ए-लय में है फ़ुग़ाँ का अंदाज़
तेरी महफ़िल में कहीं 'कौकब'-ए-नाशाद न हो