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शेर
पत्थरों पर नक़्श करता हूँ मैं हर्फ़-ए-ईन-ओ-आँ
क्या पता मिट जाएगा या कुछ बना रह जाएगा
अहमद नियाज़ रज़्ज़ाक़ी
ग़ज़ल
जो दिल में है वो कह डालो लिहाज़-ए-ईं-ओ-आँ कब तक
रहे इज़हार-ए-हक़ में मस्लहत मोहर-ए-दहाँ कब तक
दत्तात्रिया कैफ़ी
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नज़्म
मुन्नी तेरे दाँत कहाँ हैं
आ कर उन को ले गए चूहे लम्बी मोंछों वाले
गुड़ का उन को माट मिला था मीठा और मज़ेदार
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अहल-ए-वफ़ा से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ कर लो पर इक बात कहें
कल तुम इन को याद करोगे कल तुम इन्हें पुकारोगे