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ग़ज़ल
जिस वक़्त तू ने फ़र्त-ए-मोहब्बत में अपना आप
गर्द-ए-रह-ए-तलब में मिटाया तो हम हुए
राव मोहम्मद उमर
ग़ज़ल
बस ये एजाज़-ए-मोहब्बत था कि मेरी क़ब्र पर
संग-दिल से संग-दिल भी फ़ातिहा देता गया
मोहम्मद हबीब हबीब
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ग़ज़ल
'सफ़ीर' अब तक तो रूदाद-ए-मोहब्बत ख़ाम है तेरी
अभी तो आँख भी फ़र्त-ए-अलम से नम नहीं होती
मोहम्मद अब्बास सफ़ीर
शेर
यक़ीं मोहकम अमल पैहम मोहब्बत फ़ातेह-ए-आलम
जिहाद-ए-ज़िंदगानी में हैं ये मर्दों की शमशीरें