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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
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ग़ज़ल
हैं दीदनी बनफ़शा ओ सुम्बुल के पेच ओ ताब
नक़्शा खींचा हुआ है ख़त-ओ-ज़ुल्फ़-ए-यार का
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
है ज़िक्र-ए-यार क्यूँ शब-ए-ज़िंदाँ से दूर दूर
ऐ हम-नशीं ये तर्ज़ ग़ज़ल का कभी न था