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नज़्म
यौम-ए-ख़वातीन
आज भी कोई कहीं गोश-बर-आवाज़ न था
आज भी चारों तरफ़ लोग थे अंधे बहरे
रफ़ीआ शबनम आबिदी
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ग़ज़ल
हमारी हर नज़र तुझ से नई सौगंध खाती है
तो तेरी हर नज़र से हम नया पैमान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
दरख़्त-ए-ज़र्द
वो शायद माइदे की गंद बिरयानी न खाती हो
वो नान-ए-बे-ख़मीर-ए-मैदा कम-तर ही चबाती हो
जौन एलिया
नज़्म
रातें सच्ची हैं दिन झूटे हैं
वो सब इक बर्फ़ानी भाप की चमकीली और चक्कर खाती गोलाई थे
सो मेरे ख़्वाबों की रातें जलती और दहकती रातें
जौन एलिया
नज़्म
मुफ़्लिसी
सब ख़ाक में मिलाती है हुर्मत की शान को
सौ मेहनतों में उस की खपाती है जान को