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शेर
लैला ओ मजनूँ की लाखों गरचे तस्वीरें खिंचीं
मिल गई सब ख़ाक में जिस वक़्त ज़ंजीरें खिंचीं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
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नज़्म
अँदेशा-ए-विसाल की एक नज़्म
शफ़क़ के फूल थाली में सजाए साँवली आई
चराग़ों से लवें खिचीं दरीचों में नमी आई
अब्बास ताबिश
ग़ज़ल
जो हो दूर-अज़-ख़याल-ए-'मानी'-ओ-'बहज़ाद' हर सूरत
बग़ैर-अज़-मू-क़लम खींचीं वो तस्वीर-ए-ख़याली हम
जुरअत क़लंदर बख़्श
कुल्लियात
देखें तो मिस्र-ए-हुस्न में क्या ख़्वारियाँ खिंचीं
अब तक तो हम अज़ीज़ रहे हैं जहाँ रहे
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
सख़्तियाँ खींचीं सो खींचीं फिर भी जो उठ कर चले
चलते उस कूचे से हम पर सैंकड़ों पत्थर चले
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
पंद-गो मुशफ़िक़ अबस मेरा नसीहत-गर हुआ
सख़्तियाँ जो मैं बहुत खींचीं सो दिल पत्थर हुआ