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ग़ज़ल
क्या ख़ूब निभाई शर्त-ए-वफ़ा 'बरतर' को अकेला छोड़ गए
रू-पोश हुए हो ज़ेर-ए-लहद अब जल्वा-नुमाई क्या होगी
बरतर मदरासी
नज़्म
वो हर्फ़-ए-तन्हा
बुज़ुर्ग-ओ-बरतर ख़ुदा कभी तो (बहिश्त-ए-बर-हक़)
हमें ख़ुदा से नजात देगा