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ग़ज़ल
मुरत्तब कर लिया है कुल्लियात-ए-ज़ख़्म अगर अपना
तो फिर 'एहसास-जी' इस की इशाअ'त क्यूँ नहीं करते
फ़रहत एहसास
कुल्लियात
मेरे मालिक ने मिरे हक़ में ये एहसान किया
ख़ाक-ए-नाचीज़ था मैं सो मुझे इंसान किया
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
न रह दुनिया में दिल-जमई से ऐ इंसाँ जो दाना है
सफ़र का भी रहे ख़तरा कि इस मंज़िल से जाना है
मीर तक़ी मीर
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कुल्लियात
न ख़ातिर पर अलम तेरे न दिल पर कुछ सितम तेरे
महल्ल-ए-रहम होवें किस तरह मज़लूम हम तेरे
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
'इश्क़-ए-समद में जान चली वो चाहत का अरमान गया
ताज़ा किया पैमान सनम से दीन गया ईमान गया
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
'इश्क़ हो हैवान का या उन्स हो इंसान का
लाग जी की जिस से हो दुश्मन है अपनी जान का
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
इश्क़ हमारे ख़याल पड़ा है ख़्वाब गई आराम गया
जी का जाना ठहर रहा है सुब्ह गया या शाम गया