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नज़्म
किस से मोहब्बत है
लब-ए-लालीं पे लाखा है न रुख़्सारों पे ग़ाज़ा है
जबीं-ए-नूर-अफ़्शाँ पर न झूमर है न टीका है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
आज की रात
मज़हब-ए-इश्क़ में जाएज़ है यक़ीनन जाएज़
चूम लूँ मैं लब-ए-लालीं भी अगर आज की रात
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
तसव्वुर से लब-ए-लालीं के तेरे हम अगर रो दें
तो जो लख़्त-ए-जिगर आँखों से निकले इक रक़म निकले
बहादुर शाह ज़फ़र
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नज़्म
साक़ी
मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जाम-ए-लालीँ में
अभी कुछ और है कुछ और है कुछ और है साक़ी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
बुत-साज़
मैं ने क्या सोच के सहरा में दुकाँ खोली है
लब-ए-लालीं के तसव्वुर में मंगाए याक़ूत
अख़्तर उस्मान
ग़ज़ल
सदा ''ना ना'' की यूँ तो गोश-ज़द होती रही है
लब-ए-लालीं से साफ़ इंकार पहले कब हुआ था