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ग़ज़ल
मजनूँ-सिफ़त फिरूँ हूँ मैं सहरा में तो भी हाए
ऐ लैला-वश किया नहीं बोस-ओ-कनार हैफ़
क़द्र औरंगाबादी
ग़ज़ल
कुश्ता-ए-ज़ुल्फ़ के मरक़द पे तू ऐ लैला-वश
बेद-ए-मजनूँ ही लगा ता-कि पता याद रहे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
बुतान-ए-माह-वश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
कि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
नज़्म
शोला-ए-तरब
रोने की उम्र है न सिसकने की उम्र है
जाम-ए-नशात बन के छलकने की उम्र है
ओवेस अहमद दौराँ
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ग़ज़ल
अश्क-बारी का मिरी आँखों ने ये बाँधा है झाड़
डूबते दिखलाई दें हैं ता-कमर सारे पहाड़
वलीउल्लाह मुहिब
शेर
दोस्त दिल रखने को करते हैं बहाने क्या क्या
रोज़ झूटी ख़बर-ए-वस्ल सुना जाते हैं