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शेर
किया है फ़ाश पर्दा कुफ़्र-ओ-दीं का इस क़दर मैं ने
कि दुश्मन है बरहमन और अदू शैख़-ए-हरम मेरा
चकबस्त बृज नारायण
शेर
मैं कुफ़्र ओ दीं से गुज़र कर हुआ हूँ ला-मज़हब
ख़ुदा-परस्त से मतलब न बुत-परस्त से काम
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
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शेर
सर-रिश्ता कुफ़्र-ओ-दीं का हक़ीक़त में एक है
जो तार-ए-सुब्हा है सो है ज़ुन्नार देखना
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार
ग़ज़ल
तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
फ़साना ही नहीं कोई तो उनवाँ कौन देखेगा
अज़ीज़ वारसी
शेर
तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
फ़साना ही नहीं कोई तो उनवाँ कौन देखेगा
अज़ीज़ वारसी
ग़ज़ल
'इशरत' बता दो राज़-ए-मोहब्बत ज़माने को
दुनिया में क्यों ये कश्मकश-ए-कुफ़्र-ओ-दीं रहे
इशरत जहाँगीरपूरी
ग़ज़ल
मिरी नज़रों में अब बाक़ी नहीं है ज़ौक़-ए-कुफ़्र-ओ-दीं
मैं इक मरकज़ पे अब दैर-ओ-हरम महसूस करता हूँ
बहज़ाद लखनवी
ग़ज़ल
मिल्लत-ए-कुफ़्र-ओ-दीं की बहस गर्म थी ख़ानक़ाह में
इतने में कोई मय पिए दस्त-ब-जाम आ गया