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नज़्म
मैं पल दो पल का शा'इर हूँ
हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की आज उगती है कल कटती है
जीवन वो महँगी मदिरा है जो क़तरा क़तरा बटती है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
निर्त पे झूमें भाव पे लहकें मदिरा पी कर बहकें लोग
कौन सुने जो चीख़ें दबी हैं पायल की झंकारों में
इशरत क़ादरी
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नज़्म
नक़्श-ए-फ़र्यादी
हर-वक़्त रहता है मदिरा में असीर
ये मदिरा वो है उस के ज़ेहन में है जो भरी