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ग़ज़ल
शौक़ का बहर-ए-बे-कराँ महव-ए-सुकूत-ए-जावेदाँ
इस में न कोई जोश अब इस में उबाल अब नहीं
फ़रीद परबती
ग़ज़ल
कब तक मैं रहूँ महव-ए-सुकूत-ए-शब-ए-हिज्राँ
ऐ क़ल्ब-ए-हज़ीं नाला बपा कर कि सहर हो
असग़र अली तबस्सुम
रुबाई
मसरूफ़ जो यूँ वज़ीफ़ा-ख़्वानी में हैं आप
ख़ैर अपनी समझते बे-ज़बानी में हैं आप
अल्ताफ़ हुसैन हाली
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ग़ज़ल
कहीं सुब्ह-ओ-शाम के दरमियाँ कहीं माह-ओ-साल के दरमियाँ
ये मिरे वजूद की सल्तनत है अजब ज़वाल के दरमियाँ