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ग़ज़ल
माह-ओ-अंजुम की ज़िया भी हो मुक़द्दर उस का
ज़ीस्त में जिस ने मिरी आज अंधेरा रक्खा
तरन्नुम शब्बीर
नज़्म
शाइ'र की दुनिया
गुलिस्ताँ में कभी बुलबुल-सिफ़त महव-ए-तरन्नुम है
कभी महफ़िल में जा जा कर वो मसरूफ़-ए-तकल्लुम है
नारायण दास पूरी
नज़्म
शिकवा
एक बुलबुल है कि महव-ए-तरन्नुम अब तक
उस के सीने में है नग़्मों का तलातुम अब तक
अल्लामा इक़बाल
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ग़ज़ल
बे-जान से भी होते हैं वो महव-ए-गुफ़्तुगू
क्या जाने मुझ से क्यों वो मगर बोलते नहीं
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
ज़ब्त इतना कि चराग़ों से हुए महव-ए-कलाम
याद इतनी कि तुझे दिल से उतरने न दिया
अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन
नज़्म
उलझन
मैं ने अल्फ़ाज़ में रूमान के नग़्मे ढाले
सई-ए-तख़्लीक़-ए-तरन्नुम से सुकूँ मिल न सका
नज़ीर मिर्ज़ा बर्लास
नज़्म
वासोख़्त
गर फ़िक्र-ए-ज़ख्म की तो ख़ता-वार हैं कि हम
क्यूँ महव-ए-मद्ह-ए-खूबी-ए-तेग़-ए-अदा न थे