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ग़ज़ल
गर यही फ़स्ल-ए-जुनूँ-ज़ा है यही अब्र-ए-बहार
अज़्मत-ए-तौबा निसार-ए-मय-कशी हो जाएगी
जगत मोहन लाल रवाँ
ग़ज़ल
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
पुर-समर शाख़ को है सर का झुकाना अच्छा
छोड़ दे अपने से ये मा-ओ-मनी ख़ूब नहीं
चंदू लाल बहादुर शादान
ग़ज़ल
अदा दिल से करेंगे शुक्र सब अहल-ए-वतन यारब
मय-ए-इशरत से जो उन का लिया लब तो सुबू कर दे