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ग़ज़ल
मर्ग-ए-'जिगर' पे क्यूँ तिरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही मगर इतना अहम नहीं
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
परछाइयाँ
मगर उन्हें तो मुरादों की रात मिल जाए
हमें तो कश्मकश-ए-मर्ग-ए-बे-अमाँ ही मिली
साहिर लुधियानवी
नज़्म
लेनिन
ज़ाहिर में तिजारत है हक़ीक़त में जुआ है
सूद एक का लाखों के लिए मर्ग-ए-मुफ़ाजात