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मर्सिया
अर्श के नूरी ज़मीं के फ़र्श पर आने को हैं
और इक ख़ाकी को सैर-ए-ख़ुल्द दिखलाने को हैं
ख़ुशी मोहम्मद नाज़िर
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ग़ज़ल
किस क़दर तम्हीद रंगीं है शब-ए-आलाम की
मुझ को मुझ से छीने लेती हैं फ़ज़ाएँ शाम की
नख़्शब जार्चवि
ग़ज़ल
दिल हुआ वीराँ मता-ए-चश्म-ए-नम जाती रही
रफ़्ता रफ़्ता शोरिश-ए-तब-ए-अलम जाती रही
ख़ुर्शीदुल इस्लाम
ग़ज़ल
तमाम उम्र किसी का सहारा मिल न सका
मैं ऐसा दरिया था जिस को किनारा मिल न सका
मोहम्मद सिद्दीक़ नक़वी
ग़ज़ल
पस-ए-शाम-ए-अलम किसी महर-ए-निगाह को देखते थे
वो लोग कहाँ मिरे हाल-ए-तबाह को देखते थे