मर्सिया-ए-सर-सय्यद रदीफ़ ये
अर्श के नूरी ज़मीं के फ़र्श पर आने को हैं
और इक ख़ाकी को सैर-ए-ख़ुल्द दिखलाने को हैं
बाग़-ए-जन्नत को सिधारा सय्यद-ए-आली-मक़ाम
राह में उस की मलाएक नूर बरसाने को हैं
वाए-हसरत चल दिया दुनिया से वो महबूब-ए-क़ौम
और जो बाक़ी हैं उस के हिज्र में जाने को हैं
साक़ी-ए-मरहूम तेरे बादा-ख़्वारों के लिए
ख़ून-ए-दिल पीने को और लख़्त-ए-जिगर खाने को हैं
गुलशन-ए-मिल्लत में ग़ुंचों ने अभी खोली थी आँख
एक झोंके से ख़िज़ाँ के अब वो मुरझाने को हैं
छुप गया वो रू-ए-रख़्शाँ मेहर-ए-आलम-ताब का
अब शब-ए-यलदा की हर-सू ज़ुल्मतें छाने को हैं
ऐ शह-ए-बे-ताज वो मातम की तेरे धूम है
ताज-दारों के अलम इस ग़म से झुक जाने को हैं
दश्त में दूँ लग रही है क़ैस के मातम में आज
आहुवान-ए-नज्द की आँखों में अश्क आने को हैं
एक सीने में थी सय्यद के तड़प इस्लाम की
हम मुसलमाँ सब बराए नाम कहलाने को हैं
कारवान-ए-क़ौम का हंगामा तेरे दम से था
ये न था मा'लूम हज़रत कूच फ़रमाने को हैं
बोसा-गाह-ए-क़ौम होगा तेरे संग-ए-आस्ताँ
नक़्श-ए-पा पर तेरे लाखों क़ाफ़िले आने को हैं
हर ज़माँ ईं रहगुज़र रा कारवान-ए-दीगर अस्त
कुश्तगान-ए-इश्क़ रा हर लख़्त जान-ए-दीगर अस्त
हाए वो ख़ुर्शीद-ए-अनवर चेहरा-ए-ताबाँ तिरा
हाए वो माह-ए-मुनव्वर आरिज़-ए-रख़्शाँ तिरा
वो निगाहें जाँ-फ़ज़ा और वो अदाएँ दिल-रुबा
वो जबीन-ए-दिल-कुशा वो दिल-फ़रोज़ उनवाँ तिरा
हाए उस रीश-ए-मुबारक पर वो बारिश नूर की
शाम-ए-पीरी में बयाज़-ए-सुब्ह नूर-अफ़शाँ तिरा
हाए वो जान-ए-बसीरत तेरा नूरानी दिमाग़
हाए वो कान-ए-मोहब्बत सीना-ए-सोज़ाँ तिरा
वो तिरी शान-ए-जलाली वो तिरा रो'ब-ए-जमाल
पड़ गई जिस पर नज़र था बंदा-ए-फ़रमाँ तिरा
मेहदी-ओ-मुश्ताक़ हमदम शिबली-ओ-हाली नदीम
और ज़ैन-उल-आब्दीं ख़ासाइ-ए-ख़ासाँ तिरा
बाम-ओ-दर कॉलेज के हैं मातम में तेरे सर निगूँ
मर्सियाँ-ख़्वाँ बन गया हर काख़-ओ-हर-ऐवाँ तिरा
दिल से ख़िश्त-ओ-संग के कॉलेज में उठती है सदा
क्या हुआ मीर-ए-इमारत ख़ाना-ए-वीराँ तिरा
ता-जहाँ में है तिरे नाना की उम्मत को बक़ा
क़ौम में मातम रहेगा सय्यद-अहमद-ख़ाँ तिरा
बंदा-पर्वर वक़्त-ए-रुख़्सत याद फ़रमाया न क्यूँ
नाज़िर-ए-महजूर था वाबस्ता-ए-दामाँ तिरा
ऐ चमन पैरा-ए-मिल्लत तेरे शौक़-ए-दीद में
था नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ ये बुलबुल-ए-बुस्ताँ तिरा
सर-ब-सहरा अब रहेंगे आह दीवाने तेरे
शम-ए-तुर्बत का करेंगे तौफ़ परवाने तिरे
हाए बज़्म-ए-क़ौम में अब जल्वा फ़रमाएगा कौन
माह के मानिंद हाले में नज़र आएगा कौन
ऐ मसीहा क़ौम के तुझ बिन इज़ाम-ए-ख़स्ता को
क़ुम-बे-इज़्नी कह के अब जुम्बिश में फिर लाएगा कौन
देख कर चितवन तिरी उठते थे दिल में वलवले
इस निगाह-ए-गर्म से अब दिल को गर्माएगा कौन
था तिरा रू-ए-मुनव्वर एक नज्म-ए-रहनुमा
अब वो नूरानी फ़ज़ा ज़ुल्मत में दिखलाएगा कौन
उस शुआ'-ए-रूह-परवर से फिर ऐ माह-ए-मुनीर
दिल के दरिया में वो रक़्स-ए-मौज दिखलाएगा कौन
ख़ाना-जंगी हर तरफ़ है मा'शर-ए-इस्लाम में
हाए तुझ बिन इन के ये उलझाओ सुलझाएगा कौन
दार-ओ-गीर-ए-दहर मिस्ल-ए-अर्सा-ए-शतरंज है
यार-ए-शातिर बन के इस की चाल बतलाएगा कौन
झुग्गियों का रूप भर कर क़ौम की स्टेज पर
मा नमी ख़्वाहेम नंग-ओ-नाम रा गाएगा कौन
रूठ कर जाता है सय्यद आओ लें इस को मना
वर्ना इतनी मुश्किलें आसान फ़रमाएगा कौन
दफ़्न करना सहन में कॉलेज के सर-सय्यद की लाश
इस ख़लीलुल्लाह से का'बे को छुड़वाएगा कौन
यूँ तो लाखों आएँगे इस नज्द में और जाएँगे
सय्यद अहमद सा जुनूँ-सामाँ मगर आएगा कौन
ऐ हरीफ़ाँ आँ क़दह ब-शिकस्त-ओ-आँ साक़ी नुमान्द
जुरआ'-ए-जुज़ अश्क-ए-ख़ूँ दर जाम-ए-मा बाक़ी नुमान्द
सय्यद-ए-मरहूम उम्मत का भला करता रहा
फ़िक्र-ए-मिल्लत रोज़-ओ-शब सुब्ह-ओ-मसा करता रहा
जो फ़लाह-ए-क़ौम की आई समझ में उस की बात
बरमला कहता रहा और बरमला करता रहा
थी उसे परवाह-ए-तहसीं और न कुछ नफ़रीं का डर
उस को जो करना था बे-रू-ओ-रिया करता रहा
ना-सज़ा सुनता रहा और मर्हबा कहता रहा
कुफ़्र के फ़तवों में काम इस्लाम का करता रहा
गर हुए नाकामियों से हौसले यारों के पस्त
हिम्मत-ए-आली का अपनी इक़तिज़ा करता रहा
क़ौम में फिर ताज़ा ज़ौक़-ए-बुत-परस्ती देख कर
इक नया का'बा अलीगढ़ में बना करता रहा
ऐ कि कॉलेज के ये क़स्र-ओ-ख़ाका-ओ-एवाँ देखिए
काम जो शाहों का था सो ये गदा करता रहा
उस ने की इस्लाम और औहाम-ए-बातिल में तमीज़
ज़ंग से आईना-ए-दीं की जिला करता रहा
कुफ़्र के हमलों में था इस्लाम की दाइम सिपर
आलम-ए-उम्मत ये कार-ए-अंबिया करता रहा
शाहिद-ए-उर्दू की ज़ुल्फ़ों के निकाले पेच-ओ-ख़म
हुस्न के ग़मज़ों को फ़ितरत-आश्ना करता रहा
ये चली थी उम्मत-ए-मरहूम सैल-ए-ग़द्र में
मौत के तूफ़ाँ में कार-ए-नाख़ुदा करता रहा
ज़िंदगी सय्यद की थी क़ल्ब-ए-तपाँ की ज़िंदगी
थी जहाँ की ज़िंदगी जान-ए-जहाँ की ज़िंदगी
छुप गया वो मेहर-ए-ताबाँ बज़्म-ए-दौराँ छोड़ कर
मतला-ए-उम्मीद का तारीक उनवाँ छोड़ कर
फ़स्ल-ए-गुल में वो चला बज़्म-ए-गुलिस्ताँ छोड़ कर
शाख़ सारे आरज़ू के गुल-ब-दामाँ छोड़ कर
नाला-ए-दिल-दोज़ सहन-ए-बोस्ताँ में सर किया
बुलबुलान-ए-ज़ार ने दरस-ए-गुलिस्ताँ छोड़ कर
आ लिया सैल-ए-फ़ना ने कारवाँ सालार को
क़ाफ़िले को दश्त-ए-हिरमाँ में परेशाँ छोड़ कर
पीर-ए-कनआँ' की जुदाई से जिगर है पाश पाश
गो चला है मिस्र में वो माह-ए-कनआँ छोड़ कर
सो गया कुंज-ए-लहद में शाह-ए-बे-ताज-ओ-सरीर
बाग़-ओ-राग़-ओ-बारगाह-ओ-क़स्र-ओ-ऐवाँ छोड़ कर
फ़ैज़ से तेरे रही वाबस्ता हासिल की उम्मीद
तिश्ना-लब कहती न जाए अब्र-ए-नैसाँ छोड़ कर
ये तो बतला दे कि है किस का सहारा क़ौम को
का'बा-ए-दिल क़िबला-ए-जाँ तेरा दामाँ छोड़ कर
कौन होगा मर्द-ए-मैदाँ अब मसाफ़-ए-दहर का
हाथ में किस के चला है गो वो चौगां छोड़ कर
बंदा-पर्वर ये जुनून-ए-इश्क़ के शायाँ न था
सैर-ए-गुलज़ार-ए-इरम ख़ार-ए-मुग़ीलाँ छोड़ कर
गाहे-गाहे क़ौम की हालत पे भी करना नज़र
सैर-ए-जन्नत छोड़ कर गुल-गश्त-ए-रिज़वाँ छोड़ कर
इस चमन में रूह मंडलाती रहेगी आप की
जाएगी बुलबुल कहाँ बज़्म-ए-गुलिस्ताँ छोड़ कर
दार-ए-फ़ानी की है 'नाज़िर' गरचे फ़ानी ज़िंदगी
कुश्तगान-ए-इश्क़ की है जावेदानी ज़िंदगी
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