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ग़ज़ल
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
नज़्म
बे-ख़ुदी
लबों की मद्धम तवील सरगोशियों में साँसें उलझ गई थीं
मुँदे हुए साहिलों पे जैसे कहीं बहुत दूर
गुलज़ार
कुल्लियात
अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद
या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
मीर तक़ी मीर
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नज़्म
बटला हाउस
मैं भी अब तक जाग रहा हूँ आँखें मूँदे सोच रहा हूँ
नीचे जाना कैसा होगा बाहर कितनी सर्दी होगी